बुधवार, 16 अप्रैल 2014

मीडिया ट्रायल


लोकतंत्र का चौथा स्तंभ 'संवादपालिका' आज खुद कटघरे में खड़ा है | और आरोप है कि इसने 'संवाद' जो की इसके अस्तित्व की बुनियाद है, से छेड़खानी की है | निरंतर और चौतरफा लगे आरोपों ने इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया है | और लोकतंत्र के लिए इससे बुरा दिन क्या हो सकता है कि वहां की मीडिया संदेह के घेरे में हो | यह और भी खतरनाक तब लगता है जब हम इसकी तह तक जाते हैं | मनोविज्ञान के अनुसार कंडीशनिंग का असर मनुष्य पर जीवनपर्यन्त रहता है | बाल्यावस्था से ही हम सूचनाओं से घिरे होते हैं | सूचना से विचार आते हैं, विचार से नजरिया बनता है, नजरिया से अवधारणा बनती है और अवधारणा से व्यक्तित्व का विकास होता है | तो यह साफ दिखता है की एक व्यक्तित्व के विकास में सूचना का कितना महत्त्व है | उदहारणस्वरुप आपने अपने होने वाले पति/पत्नी को नहीं देखा है, विभिन्न सूत्रों से आपको पता लगता है की वो दिखने में बहुत ही सुन्दर हैं,उनकी नाक लम्बी है, रंग गोरा है और वो अच्छा नाचते व गाते भी हैं | तो मन ही मन हम उस व्यक्ति की एक इमेज बना लेते हैं कि वो ऐसे दिखते होंगे | और अगर सूचना ही गलत हो तो ..... ?
शरीर की व्याधि का उपचार तो संभव है, किन्तु इस सूचना तंत्र के बीमार होने से जो मानसिक महामारी फैल रही है यह अनुपचारित है | यह देश के युवाओं को, और विशेषत: उन युवाओं को जो मीडिया में करियर बनाना चाहते हैं उन्हें, गुमराह करती है | छात्र जीवन में हर मीडिया पर्सन को 'एथिक्स ऑफ़ मीडिया' पढाया जाता है फिर क्यों नहीं वो उसका अनुसरण करते हैं ? क्यों हमारे यंहा 'तरुण तेजपाल' जैसे पत्रकार पैदा होते हैं ? क्यों हम पर 'पेड मीडिया' का टैग लगाया जाता है ?क्यों हम पर 'बायस्ड' होने का आरोप लगाया जाता है ? जब इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढते हैं तो हमारे नैतिक मूल्य और शिक्षा व्यवस्था ही प्रश्नो के घेरे में आ जाती है |
एक पत्रकार को शुरू से ही यह घुट्टी पिलायी जाती है कि विचारशून्य बनों | स्मरण रहे की एक विचारशून्य व्यक्ति कभी दूसरों के विचारों की कद्र नहीं कर सकता | सच, सच ही होता है तथा झूठ, झूठ ही | अगर एक पत्रकार सच को सच बता दे तो अपने कर्तव्य का निर्वाह न करने का आरोप कहाँ तक जायज है ? और इस कर्तव्य का निर्धारण आखिर करता कौन हैं ? क्या वही किताबें और कानून जो आज से 40-50 साल पहले लिखी गई थी | उस समय के हिंदुस्तान और आज के इंडिया में बहुत बदलाव आ गया है | आज हमारा एक घोटाला तो कई देशों के बजट से भी अधिक होता है | आज देश की सीमा से अधिक तनाव तो देश के शहरों में होती है | आज जंग से अधिक कुर्बानियां तो दंगो में दी जाती है | आज चोर-डाकुओं से अधिक खौफ तो पुलिसवालों का होता है | आज संसद से अधिक शालीनता तो सड़क पे दिखती है | फिर हम कैसे आशा कर सकते हैं कि बदलाव की इस बयार से मीडिया अछूता रह जायेगा ? निसंदेह आर्थिक पहलुओं ने मीडिया के 'एथिक्स' को प्रभावित किया है परंतु इसकी भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता | आज इक्कीसवीं सदी के भारत में कोई भी संस्थान, समाज या व्यक्ति विचारशून्य नहीं हो सकता, और अगर है तो कम से कम पत्रकार न बने |
अब वक्त आ गया है उस अध्याय को पाठ्यक्रम से हटा देने का जिसकी उपयोगिता बदलते समय में क्षीण हो गई है | अब वक्त आ गया है नई नीतियों के निर्धारण का | अब वक्त आ गया है आत्मचिंतन का | अब वक्त आ गया है खुल कर बहस करने का | हर नीति, कानून, और बहस के अंत में व्यक्ति ही होता है इसीलिए यह सर्वाधिक आवश्यक है कि वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे | एक पत्रकार को सच कहने और पूछने का साहस होना चाहिए | सूचना क्रांति के इस दौर में कुछ भी छुपा नहीं है तो फिर इस "पारदर्शी नकाब" की क्या जरुरत है ?
'लोकतंत्र के प्रहरी' को भी अपने नैतिक मूल्यों को समझना होगा, तथा 'ब्रेकिंग न्यूज', 'फ्रंट पेज' और 'लुटियन जोन' की पत्रकारिता से बचना होगा अन्यथा दिन - प्रतिदिन अपनी विश्वसनीयता खोता जायेगा | उसे वंचितों की आवाज बुलंद करनी होगी, उसे भ्रष्टाचारियों को आईना दिखाना होगा और उसे बदलते भारत का गवाह बनना ही होगा |
संतोष कुमार
(संकूल नवप्रवर्तन केंद्र, दिल्ली विश्वविद्यालय)